बदायूँ जनमत। बदायूं का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं पर यहां बदायूं को बदायूं बनाने में अदब साहित्य का सबसे बड़ा योगदान रहा है। अदबी फलक पर चमकने वाले बहुत सितारे हमे बदायूं ने दिए उनमें बहुत हैं। मसलन शकील बदायूंनी साहब, हसीब शोज़ साहब ओर बहुत लेकिन हसीब साहब के बाद आज जो रोशनी कम हुई है उसका बयान लफ़्ज़ों में कर पाना बहुत मुश्किल है। फहमी बदायूंनी साहब।
फ़हमी बदायूंनी का असल नाम जमा शेर खान उर्फ पुत्तन खान था। आपका जन्म 4 जनवरी 1952 को कस्बा बिसौली जिला बदायूं (उप्र) में हुआ। 72 साल की उम्र में आज रविवार को उनका बीमारी के चलते इंतक़ाल हो गया। कल सोमवार को उन्हें बिसौली के ईदगाह स्थित कब्रिस्तान में दफन किया जाएगा। आपकी शायरी में जदीदियत संजीदा फिक्र-ओ-ख्याल और नए जाबीए और नई तर्ज पर गुफ़्तगू करते उनके अशआर पढ़ने और सुनने बाले उनके दीवाने हो जाते है। जिन्होंने शायरी की बारीकी को इतने सलीके के पेश किया कि जो उनको सुनता दीवाना हो जाता। उनकी तीन किताबें मंज़र ए आम पर आ चुकी हैं। जिसमें “पांचवीं सम्त”, “दस्तक निगाहों की” और “हिज्र की दूसरी दवा” क़ाबिल ए जिक्र हैं। आपने लंदन सहित कई देशों में अपने कलाम पेश किए हैं।
उनकी मासूमियत कम बोलने का अंदाज जिसको उन्होंने अपने अंदा में खुद कहा –
अमूमन हम बहुत कम बोलते हैं
अगर बोले तो बस हम बोलते हैं।
ऐसी सादा ज़बान में शेर कहने का हुनर आपको ही आता है।
पूछ लेते वो बस मिजाज़ मेरा
कितना आसान था इलाज मेरा।
पहले लगता था तुम ही दुनिया हो
अब ये लगता है तुम भी दुनिया हो।।
ऐसी शायरी जिसकी दुनियां दीवानी थी और अपनी शायरी में ऐसे लफ़्ज़ों को पिरोया की मानो कोई बात ही कर रहा हो। इस कला ने उनको पुत्तन खा से कब फ़हमी बदायूँनी बना दिया पता ही न चला।
इसी कुरसी पे बैठा करती थी माँ,
मैं माँ की गोद में बैठा हुआ हूं ||
कुछ और अशआर जो युवाओ ज़बान पर चढ़े हुए है —
खुशी से कांप रही थीं ये उंगलियां इतनी,
डिलीट हो गया इक शख़्स सेव करने में।
निकल आए तो फिर रोने न देंगे
हम अपने आंसुओं से डर रहे हैं।
और आखरी वक्त के लिए एक शायर ने कहा कि वही अंदाज़ जिसे फ़हमी बदायूंनी कह सकते है –
टहलते फिर रहे हैं सारे घर में
तेरी ख़ाली जगह को भर रहे हैं
निकल आए तो फिर रोने न देंगे
हम अपने आँसुओं से डर रहे हैं
आज वो सितारा कही विदा हो गया
पूरी तैयारियों से आई थी
मौत ज़िंदा समझ रही थी मुझे।