जनमत एक्सप्रेस। बात उन दिनों की है, महात्मा गाँधी को दक्षिण अफ्रीका से लौटे अभी चंद वर्ष ही बीते थे। जल्द ही उनके द्वारा चलाये जा रहे अहिंसक, सत्यग्रह की चर्चा चारो तरफ होने लगी थी। सैकड़ों मील दूर अफगानिस्तान की सरहद पर पशतून पठान कबीले तक भी यह बात पहुंची। इसी कबीले के एक पढे लिखे नौजवान को सत्य, अहिंसा पर आधारित गाँधी का फल्सफ़ा ऐसा भाया कि उसने जनसेवा को ही अब अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इस पठान के त्याग और बलिदान को देख कर ही लोगों ने आगे चलकर उन्हें ‘सरहदी गाँधी’ का खिताब दिया। इस जियाले नौजवान का पूरा नाम था ‘खान अब्दुल गफ्फार खान’। लोग उन्हें प्यार से बाचा खान या बादशाह खान के नाम से भी बुलाया करते।
‘खान अब्दुल गफ्फार’ का जन्म सीमान्त प्रान्त में (वर्तमान पाकिस्तान) 6 फरवरी 1890 को हुआ था। पिता ‘बेहराम खान’ रुसूख़ वाले व्यक्ति थे। इन्हें मिशनरी स्कूल में पढ़ने भेजा गया । इसके बाद उच्च शिक्षा के लिये वे अलीगढ़ आये। ऊंची कद-काठी वाले बादशाह खान दर-असल फौज में अफसर बनना चाहते थे। एक बार एक भारतीय अफसर को किसी अंग्रेज़ अधिकारी द्वारा अपमानित हुए देखा। अपना आत्मसम्मान खोकर उन्हें ब्रिटिश फौज की नौकरी करना भला अब क्योंकर गंवारा होता? उसी वक़्त उन्होंने ब्रिटिश फौज की नौकरी का ख्याल अपने दिल से हमेशा के लिये निकाल दिया।
बादशाह खान का जन्म सीमांत प्रांत के जिस पश्तून पठान कबीले में हुआ था। वहाँ शिक्षा और आधुनिक जीवन मूल्यों का अभाव था। लोग आपस में कबीलों के नाम पर बटे हुए थे। हथियार और हिंसा का तो जैसे चोली दामन का साथ हुआ करता।
खानदानी दुश्मनी निभाना, एक दूसरे से बदला लेने का चलन भी आम था। महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय थी। इन कठिन परिस्थितियों में बादशाह खान ने इन पठानों के बीच जन जागृति लाने का निश्चय किया। अभी उनकी उम्र केवल 20 वर्ष की ही थी। सब से पहले उन्होंने 1910 में लडकियों की शिक्षा के लिये एक स्कूल खोला। इस के बाद ‘अफगान रिफॉर्म सोसाइटी’ नामक संस्था बनाई। धीरे धीरे स्थानीय लोग इनसे जुडने लगे।
अपनी क़ौम की दुर्दशा देख कर उन्हें बडा दुख होता। वे जानते थे कि यदि एक बार वे इन पठानों का दिल जीतने में कामियाब हो गये तो फिर बदलाव से इन्हें कोई नहीं रोक सकता। वे एक जत्था बनाकर गावँ-गावँ घूमकर लोगों को इकट्ठा करते। (लेखक – मुख्तार खान, मुंबई)